Wednesday, December 29, 2010

फिर से मिल जाती

चाह रहा फिर से मिल जाती
गीली-सी कोई चम्बल ।
इस सुराप को सुरापिलाती
गीली -सी कोई चम्बल ॥

जब तेरी आँखों में देखा
जाने क्यों मदहोश हुआ ,
झलक रही थी उन आँखों में
नीली-सी कोई चम्बल ।
चाह ...........

तेरे निह्श्वासों की मुझको
याद कभी जब आती है ;
दिल पर छा जाती है छैल
छबीली-सी कोई चम्बल ।
चाह ................

नस- नस में बसनेवाली
हर एक रवानी चम्बल की ;
सपनों में रक्ताभ ,धवल ,
कुछ पीली-सी कोई चम्बल ।
चाह र...................

अभी तो धुंद है

इस सुबह तो सर्द है ,
धुंद है भारी
भटकती सूर्य की किरणें
कहीं पर खो गयीं हैं ।
बुझा चल फोन (मोबाईल )पर अपने
अभी एलार्म की घंटी
ये बालाएं पुनः
सुख नींद सी में सो गयी हैं ।

आपकी याद आती है
लिए एक ताजगी सी ;
कहीं पर आप भी होंगी
यूँ ही आधी जगी सी ।

कुहासा है मगर
कुछ पक्षियों के पर
पुनः हिलने लगे हैं
ख्यालों में ही शायद
आप-हम मिलने लगे हैं ।
तुरत अब धू प होगी
दूब पर मोटी बिछे होंगे ,
अगर हम मिल गए तो
जिन्दगी के सिलसिले होंगे ।










9

Saturday, December 25, 2010

न जाने और क्या क्या है तेरे फ़साने में

न जाने और क्या क्या है तेरे फ़साने में
कई तो टूट गए तुझको आजमाने में ।
मैंने शब्दों की तबीयत तलाशनी चाही
बस यही जुर्म है अपना तेरे ज़माने में।
जब कभी तू हमारे शहर से गुजरती है
देख लेता हूँ तेरा चेहरा पैमाने में ।
दिल की मायूशियों से दिल का नशा लड़ता है
यही हर रोज होता है तेरे मयखाने में ।