Friday, December 27, 2013

gazal

 जिसे चाहा वही महफ़िल का ताजदार हुआ ,
फिर भी मेरा नहीं वह शक्श शुक्रगुज़ार हुआ।

गए हो काँच के टुकड़े , तेरी सूरत न गयी ,
ये दिल का आईना टूटा भी कामगार हुआ। 

गया था डूबने , चुल्लू में काम चल जाता ,
भीड़ इतनी थी कि जाना मेरा बेकार हुआ।

उसकी माशूक के दिल में जगह बना डाला ,
दोस्त बब्बर का भी क्या खूब राजदार हुआ।
                                     
- डॉ  ओम प्रकाश पाण्डेय उर्फ़ बब्बर बदनाम